शुक्रवार, 27 जून 2014

Shab-e-Malwa:   फुरसत की बतोलेबाजी का रोजनामचा भिया बोले…अनिल ...

Shab-e-Malwa:   फुरसत की बतोलेबाजी का रोजनामचा
भिया बोले…अनिल ...
:   फुरसत की बतोलेबाजी का रोजनामचा भिया बोले … अनिल कर्मा  हमारे मालवा-निमाड़ में शाम से लेकर रात तक का फुरसत का समय आम तौर ...

Shab-e-Malwa: भिया बोले : यह सत्ता और तेल का खेल है , इस खेल मे...

Shab-e-Malwa: भिया बोले : यह सत्ता और तेल का खेल है , इस खेल मे...: फुरसत की बतोलेबाजी का रोजनामचा  भिया बोले … अनिल कर्मा  बतोलेबाजी के ठिये पर आज मौसम से होते हुए चर्चा सरहद पार जा पहुंची ...

भिया बोले : यह सत्ता और तेल का खेल है , इस खेल में कई पोल है


फुरसत की बतोलेबाजी का रोजनामचा 

भिया बोले

अनिल कर्मा 

बतोलेबाजी के ठिये पर आज मौसम से होते हुए चर्चा सरहद पार जा पहुंची है।  तर्क हैं , जानकारियां हैं , वाद-विवाद है, मस्ती है .… और भिया तो हैं ही। तो चलिए , सुनते हैं आज क्या बोल रहे हैं भिया-

 

 

 

भिया बोले : यह सत्ता और तेल का 

खेल है , इस खेल में कई पोल है 


-इस बार तो गर्मी ने पका डाला यार। बारिश आ ही नी री।

-आएगी प्यारे , थोड़ा तप ले तो निखर जायेगा।

-निखर नी बिखर जायेंगे।  पापड़ जैसे सीक गए यार।

-भिया लोगों , तुम इसी गर्मी से परेशान हो रिये हो।  दुनिया जल री है यार।  इराक को देख लो।  अफगान को देख लो।  पाकिस्तान जल रहा है।  साला लगता है पूरी दुनिया में ही आतंक  की आग फ़ैल गई है।

-कोई दुनिया-वुनिया में नी फ़ैल री।  खुद के ही पैदा किये भस्मासुर हैं. भुगतें अब।

-अरे पर भुगतना तो सबको पड़ेगा न भाई।  दुनिया अब जिस तरह से जुड़ी  है न एक दूसरे से, बचना मुश्किल है किसी का भी।

-पर ये इराक में तो अचानक  ही खलबली मच गई यार।
इलस्ट्रेशन - कुमार

-नहीं , अचानक नी । ये  पुराना दबा हुआ लावा है।

-आतंक का क्या लावा भैये । सिरफिरों का काम है ये तो।  जब चाहो हथियार उठा लो । हो जाओ शुरू।

-हाँ , हाँ  सिरफिरों का ही काम है । पर उन्हें जमीन कौन देता है?  जब तक आम आवाम का साथ न हो , कोई आतंक फल -फूल नहीं सकता।

-ये फ़िल्मी बातें छोड़ भैये।  ''जनम से कोई आतंकी नहीं होता'' यह डायलॉग सिर्फ फिल्मों में ही अच्छा लगता है। पूरी की पूरी पौध जनम ले रही है आतंक की।

- और ये भी तो है कि इराक में तो आवाम भी आतंक के खिलाफ खड़ी है।  महिलाओं- बच्चों  तक ने बंदूकें उठा ली हैं।  ऐसे में आतंकियों  का साथ कौन देगा भला?

- अरे पगले , वो आवाम का एक  धड़ा है।

-मतलब दूसरा धड़ा आतंकियों के साथ है ? पर सद्दाम के बाद में अब कैसी धड़ेबाजी।  अब तो वहां व्यवस्थित सरकार है।

- यही तो … , समझता है नहीं। बक-बक करवा लो बस।

-बता-बता यार , ज्ञान पिला जरा इसको।  बहुत जरुरत है । ये सद्दाम से आगे बढ़ा ही नहीं।

- सुन मेरे भाई , यह मूल रूप से उपेक्षा और भेदभाव से जंन्मे विद्रोह की कहानी है।  शिया और सुन्नी की बदली हुई बाज़ी है।  तू इसको सद्दाम से ही समझ। देख, सद्दाम सुन्नी था।  तानाशाह था।  उसने शिया और कुर्दों पर खूब अत्याचार किए।  सद्दाम के पहले भी यही होता रहा था।  

-पर सद्दाम को तो अमेरिका ने निपटाया।  

- हाँ, भई। दरअसल अमेरिका ने खेल किया।  उसने दुनिया को तो ये बताया कि उसकी मंशा इराक के तानाशाही शासन की जगह लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने की है।  पर दबे कुचले शियाओं को कान  में ये कहा कि सुन्नियों के अत्याचारी शासन का अंत कर वह सत्ता उन्हें सौप रहा है।  


-अच्छा ?

-हाँ , और हुआ भी वही। सद्दाम को फाँसी पर चढ़ाकर इराक में शिया हुकूमत स्थापित कर दी।  

-तो अब सुन्नी फिर सत्ता चाहते हैं क्या? इसीलिए सलटा रहे हैं शियाओं को। मारकाट मचा रखी है। 

- हाँ , यार।  तू समझ तो जाता है , पर थोड़ी प्रॉब्लम है।  नतीजे भोत जल्दी निकाल लेता है।  

- ओय,  ओय … होशियार मत बन ज्यादा।  इधर-उधर से पढ़ के ज्ञान बाँट रहा है।  अभी जूनी इंदौर की गलियों में छोड़ आऊंगा न , तो निकल भी नी  पायेगा बेटा , वहीं घूमता रह जायेगा।  

- ओ , जूनी इंदौर। देश -दुनिया को भी समझ ले जरा। सुना प्यारे सुना।  तू तो ये बता ये सुन्नी एकदम हिंसक क्यों हो गए? 

-वही बता रहा था शुरू में।  एकदम हिंसक नहीं हुए।  क्या हुआ कि जब शिया सत्ता में आये तो उन्होंने वही करना शुरू कर दिया जो पहले सुन्नी कर रहे थे।  सुन्नी अलग-थलग कर दिए गए।  भेदभाव होने लगा।  तो धीरे-धीरे सुन्नी विद्रोही होने लगे।  

-अच्छा!

- हाँ , और इनके विद्रोह को हवा दी अलकायदा से जुड़े आतंकी  संगठन आईएसआईएस (द इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड ग्रेटर सीरिया ) ने। अबु बकर अल बगदादी इसका प्रमुख है.। इतना खूंखार कि उसको नया बिन लादेन कहा जाता है।  पूरी की पूरी सेना खड़ी कर ली है उसने। 10 हजार लड़ाके हैं उसके पास।  

- अच्छा तो अपने यहाँ के नक्सलवाद जैसा है मामला ?

- ठीक-ठीक वैसा तो नहीं , पर कहानी वही है।  किसी को उसका हक़ नहीं दोगे , ज्यादा दबाओगे तो लावा ऐसे ही निकलेगा।  

- हाँ , पर फिर भी बन्दूक उठाना तो गलत ही है न यार। देश की सेना को ही मार रहे हैं।  

- गलत तो है ही , पर बन्दूक पहले किसने किस पर उठाई , यह भी तो मुद्दा
है न। 

(अब भिया ने लम्बी हुंकार भरी ) 

भिया बोले- यह सब सत्ता और तेल की लड़ाई है भय्यू।  शिया हो, सुन्नी हो या कुर्द.… सब एक ही धारा  में हैं -राजनीतिक इस्लाम।  यह प्रभुत्व के लिए इस्लाम का आंतरिक संघर्ष है।  सीरिया-इराक-लेबनान में भी यही संघर्ष है और पाकिस्तान में भी।  सऊदी अरब जैसे देश इस आग में घी डाल रहे हैं।  इन सबके बीच  अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश तेल का खेल खेल रहे हैं।  इस खेल में कई पोल हैं। भाई लोगों, पूरी दुनिया की सुरक्षा सवालों के घेरे में है … इसको समझो। तेल देखो , तेल की धार देखो।  





सोमवार, 23 जून 2014

  फुरसत की बतोलेबाजी का रोजनामचा

  1. भिया बोले

अनिल कर्मा 


हमारे मालवा-निमाड़ में शाम से लेकर रात तक का फुरसत का समय आम तौर पर ओटलों, चौराहों या चौपाटियों पर बीतता है …। काम एक ही, बतोलेबाजी। शयानी भाषा में इसको किस्सागोई कहते हैं.। यहाँ की रातें मौसम के कारण तो सुहानी होती ही हैं , ये बेसिरपैर के किस्से उन्हें और मस्ती दे देते हैं.।  पर हाँ ,इसी में  से कुछ सार्थक भी निकल आता है। …तो साहब हमारा भी ऐसा ही एक ठिया है भड़ास निकलने का.। खूब बोलो बको। कैसा भी , कहीं का भी मसाला हो , बस शर्त एक ही है कि कचोरी की चटनी की तरह बात जायकेदार होनी चाहिए। भिया लोगों को मजा आना चाहिए। वहां पर एक बड़े वाले भिया हैं। उनके बोलों अौर कानों के बीच छत्तीस का आंकड़ा है ।  आजकल के कान जो कभी नहीं सुनना चाहते वह भिया जरूर बोलते हैं।  डीटीएच की तर्ज पर उनका मामला डीएफएच है - डायरेक्ट फ्रॉम हार्ट। हार्ट और जुबान के बीच जो छलनी लोग अक्सर लगा लेते हैं, उसे भिया ने उसी तरह निकालकर फेंक दिया है जैसे बीसीसीआई से श्रीनिवासन को निकाला गया। … तो भिया ऐसा है कि भिया तो बोलेंगे और दिल से बोलेंगे। चलिए , सुनते हैं आज क्या बोल रहे हैं भिया-

बुधवार, 7 मई 2014

यह शून्य को छलने के षड्यंत्र हैं

अनिल कर्मा

वह गणित में अक्सर शून्य नंबर लाता था। मेरा दोस्त। पर अब पकी उम्र में उसका जोड़-बाकी पक्का हो गया लगता है। पिछले दिनों उसने एक हिसाब समझाया। मैं चकरा गया। बोला- घर में भी पिता पर हजार रुपए से ज्यादा ही खर्च हो जाते थे। वृद्धाश्रम में भी इतना ही दान देना पड़ रहा है। यानी जीरो लॉस। पत्नी भी खुश। मैंने कहा- 'यार, उनकी उम्र ज्यादा है। वृद्धाश्रम में अकेलापन लगा तो..।  तबीयत बिगड़ गई तो..। कुछ हो गया तो..।Ó उसने सपाट जवाब दिया- 'कुछ भी सोचकर हल्ला मत कर। जब तक ऐसा कुछ नहीं होता है, तब तक तो जीरो लॉस है ना।Ó

यह तय मानिए कि अंकों से अनजान इस नादान को यह अंकगणित घर की राजनीति ने सिखाया होगा। सियासत के  गणित में संवेदनाओं से ज्यादा 'समझदारीÓ के अंक होते हैं। फिर चाहे सियासत घर की हो, समाज की या देश-परदेश की। इसी 'समझदारीÓ के चलते व्यक्ति अकेला हुआ जा रहा है, परिवार सिकुड़ रहे हैं, समाज बंट गया और सरकार निरंकुश हो चली है। इसी 'समझदारीÓ ने मूल्यों का गणित गड़बड़ा दिया है। शून्य को दाएं-बाएं ऊपर-नीचे कर नया छलशास्त्र रचा जा रहा है। लाखों की गड़बड़ी। करोड़ों का घोटाला । अरबों का कालाधन। ऐसा कोहराम मचा है कि जिसके मन में जितना आ रहा है उतने शून्य लगाकर आंकड़ा बयां कर रहा है। इतना नुकसान। इतना फर्जीवाड़ा...। विपक्ष का काम आसान। जितने ज्यादा शून्य, उतना ज्यादा हंगामा। बेहिसाब। बेमियाद। और सरकार? सरकार भी कम नहीं। उसके अपने शून्य हैं। महाशून्य प्रधानमंत्री। बोलते ही नहीं। हजारों जवाबों से अच्छी मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी...वाह भई वाह। और शून्य के खिलाड़ी मंत्रीगण। गजब का हिसाब सीखाने लगते हैं। 'जब स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई नीति बनी ही नहीं, तो कैसा घाटा? जब कोयले का खनन हुआ ही नहीं, तो कैसा नुकसान? यानी जीरो लॉस।Ó कैसा गणित है भैया? जीरो लॉस है तो क्या स्पेक्ट्रम और कोयला खदानों के आवंटन सरकार ने महज मन बहलाने के लिए किए थे? क्या देश लॉस होने की राह तके ? जब लुट जाए तब आए आपके पास?

एक और जीरो-थ्योरी पर आप माथा पकड़ सकते हैं। हर सरकार में बार-बार कहा जाता रहा है कि अब आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई जाएगी। पर सच क्या है? अफजल गुरू  की फांसी को लटकाते-लटकाते और कसाब को बिरयानी खिलाते-खिलाते वर्षों बीत गए । 26-11 के बाद देश में चार बड़े आतंकी हमले हो चुके। सुरंग, समुद्र सब तरफ से आतंकी देश में आ रहे हैं। ये कैसा जीरो टॉलरेंस है, सरकार? आपका जीरो इतना बड़ा क्यों है?

एक स्वयंभू विकासपुरुष हैं। नरेंद्र मोदी। उन्होंने तो अपने सूबे का कुपोषण छिपाने के लिए जीरो की आड़ ले ली। कहा- 'जीरो फिगर के लिए लड़कियां खाती-पीती नहीं हैं और इसलिए दुबली दिखने लगती हैं।Ó अगर ऐसा है तो गरीबी का फिगर जीरो क्यों नहीं हो रहा, सीएम साहब। वह क्यों मुटिया रही है? भूख क्यों लाचार है फैलने के लिए?

आर्यभट्ट ने जब दुनिया को शून्य दिया तब उन्हें अंदाजा भी नहीं होगा कि इसके इतने भीषण प्रयोग होंगे। पहले गणित में शून्य था। अब शून्य में गणित हो रहे हैं। सबके अपने-अपने गणित । पहले शून्य समाधान था। अब शून्य सवाल है। हर शून्य का अपना सवाल। किसी के साथ जुड़कर उसे बड़े से बड़ा बना देने वाला शून्य, खुद कितना ही छोटा रहा हो, पर इतना असहज, असहाय और अनमना पहले कभी नहीं रहा होगा। उसे हर कदम पर ठगा जा रहा है। अगर आप संवेदना शून्य नहीं हैं, तो आइए शून्य के इस संधिकाल में उसके साथ खड़े हों। उसे भरोसा दिलाएं कि उसका ऐसा मखौल नहीं बनने देंगे। ध्यान रहे, शून्य सिर्फ अंक या शब्द नहीं है। शून्य सृष्टि का आदि है और अंत भी। और इन दोनों बिंदुओं के बीच यह समय के रथ का पहिया है।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

वक्त कितना बित गया, पर बदला कितना कम

अनिल कर्मा 

राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में एक बड़ा रोचक किस्सा प्रचलित है। बात उस समय की  है जब कुछ स्कूल ऐसे होते थे, जहां सिर्फ राजा-महाराजाओं क़े  बच्चे ही पढ़ सकतेे थे। एक़  राजा साहब ऐसे थे जिनके   बेटे के साथ एक़  गरीब के बेटे को भी स्कूल भेजा जाता था । इस बात की  क्षेत्र में बड़ी चर्चा थी। गरीब इस बात पर बल्ले-बल्ले कि  उसका  बेटा राजा के  बेटे के  साथ पढऩे जाता है। कुंछ दिन बाद लोगों को  पता चला कि  गरीब   का  बेटा राजा के  बेटे के  साथ स्कूल तो जाता है, पर क्लास में नहीं बैठता। बाहर बैठा रहता है। अब लोगों की  उत्सुकता और बढ़ गई। सब सोचते यह क्या चक्कर है। 
कुछ  लोगों का  मन नहीं ही माना। किसी तरह से मास्टरजी तक  पहुंच बनाई गई। पूछा। मास्टरजी ने कहा- हां, वह आता तो है। राजाजी ने यह कहलवा कर उसे भिजवाया था कि  राजकुमार रानीजी क़े बहुत दुलारे हैं। आप ठहरे मास्टर, राजकुमार ठहरे बच्चे। हो सकता है राजकुमार कुछ गलती कर बैठें या कोई सबक  ठीक से न सीख सके । आप को  गुस्सा आ सकता है। ..तो आप अपना गुस्सा इस गरीब बच्चे पर उतार लें। डांट लें, डंडा मार लें, चपत लगा लें। जब पूरा गुस्सा उतर जाए तो  राजकु मार को  प्यार से फिर सबक  पढ़ा दें..।

राजे-रजवाड़े नहीं रहे। किस्सा पुराना पड़ गया है, लेकिन  जो मूल सोच है , वह आज भी वही है। कई बार खुले तौर पर देखने को  भी मिलती है। राजनीति मे ही देख लीजिए। कांग्रेस में कौआ भी क़हीं गलती से कमाल दिखा दे तो क्रैडिट युवराज राहुल को  ही जाती है। दलित के घर वे खाना खा लें तो जय-जयकार।  पीडि़त की पीड़ा सुन भर लें तो वाह-वाह। मीडिया के  सवाल का  सही-सटीक  जवाब दे दें तो विजन, इनोवेटिव सोच सब नजर आ जाए। लेकिन जब पूरी ताकत झोंकने के  बाद भी उत्तरप्रदेश  में राहुल  का करिश्मा नहीं चल पाता तो पार्टी मौन धारण कर लेती है। हर कोई वह माथा तलाशने में जुट जाता है जिस पर हार का  ठीकरा फोड़ा जा सके । कभी-कभी सलमान खुर्शीद जैसे नेता भूल से सच बोल जाते हैं, मगर हल्ला इतना मचता है कि उन्हें भी जबान पीछे खींच लेना पड़ता है। याद कीजिए, खुर्शीद ने सिर्फ इतना ही तो कहा था कि छोटी-छोटी उपलब्धियों से बात नहीं बनेगी , राहुल को बड़े फलक  पर काम  करना होगा। राजकुमार के बारे में यह राय भी कबूल नहीं है पार्टी को।

समाज में भी ऐसे अनेक  उदाहरण मिल जाएंगे। समर्थ को सब माफ, बाकी को सब पाप ।  अभी पिछले दिनों की  बात है । कोर्ट ने कहा- शहर में गुंडागर्दी बहुत बढ़ गई है, पुलिस कुछ कर नहीं रही। पुलिस को  गुस्सा आया। गुंडे तो पकड़ में आए नहीं।..तो वह ऑफिस जाने-आने वाले उन दोपहिया वाहन चालकों के चालान बनाने में जुट गई जिनके वाहन में मड गार्ड नहीं हैं या जिनके साइलेंसर से अधिक  धुंआ निकल रहा है। पिछली दफा जब कोर्ट नाराज हुआ था खराब रोड और बिगड़े ट्राफिक  पर, तो प्रशासन ने हेलमेट अनिवार्य करने का बीड़ा उठा लिया था।  है ना गजब ?  

एक  और दृश्य देखिए- शहर में एक  शापिंग मॉल के सामने कुछ   अफसरों की  गाडिय़ां नियमों को धत्ता बताते हुए सडक़ पर खड़ी थी। गाडिय़ां तो अमूमन रोज ही खड़ी रहती हैं, पर उस दिन हल्ला इसलिए मच गया कि  यह सब अखबार की  सुर्खियों में आ गया था। सवाल उठने लगे । नियमों का  पालन कराने वाले ही नियमों को  कैसे  तोड़ रहे हैं? ऊपर वालों ने नीचे वालों को डांटा, नीचे वाले और नीचे वालों पर भडक़े। अन्तत: जिन अफसरों की गाडिय़ां वहां खड़ी पाई गई थी उन्होंने अपने-अपने ड्राइवर को  नोटिस थमा दिए- बताओ गाड़ी गलत पार्किंग में क्यों खड़ी की थी? गोया कि  साहब को  तो क़ुछ  पता ही नहीं। अब आप ही बताइए, क्या इन ड्राईवरों में आपको  क्लास के बाहर बैठे उस गरीब बच्चे की  सूरत नजर नहीं आती। बेशक  वक्त काफी  बीत गया है, पर शायद उतना बदला नहीं।

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

राम का आसरा

अनिल कर्मा

'मेरी माने तो बेटे का नाम राम रख दे। इस बहाने दिन-रात भगवान का नाम लेगा तो जीवन सफल हो जाएगा..। मनोहर काका की  यह बात 24 साल बाद भी उसके कानों  में गूंजती है। आज खास तौर से इसलिए क्योंकि कल ही घर में दीवार खींची गई है। अब उस तरफ राम और उसकी पत्नी...इस तरफ वह अकेला। क्या करे आखिर?  दिल बहलाने के लिए थोड़ी देर पड़ोस में बनवारी के पास जा बैठा। तसल्ली देते हुए बनवारी ने कहा- जो भी है, ठीक  है काका....अब  इस उमर में क्या करना है..बस राम-राम भजो।