अनिल कर्मा
राजस्थान के
शेखावाटी क्षेत्र में एक बड़ा रोचक किस्सा प्रचलित है। बात उस समय की है
जब कुछ स्कूल ऐसे होते थे, जहां सिर्फ राजा-महाराजाओं क़े बच्चे ही पढ़
सकतेे थे। एक़ राजा साहब ऐसे थे जिनके बेटे के साथ एक़ गरीब के बेटे को
भी स्कूल भेजा जाता था । इस बात की क्षेत्र में बड़ी चर्चा थी। गरीब इस
बात पर बल्ले-बल्ले कि उसका बेटा राजा के बेटे के साथ पढऩे जाता है।
कुंछ दिन बाद लोगों को पता चला कि गरीब का बेटा राजा के बेटे के साथ
स्कूल तो जाता है, पर क्लास में नहीं बैठता। बाहर बैठा रहता है। अब लोगों
की उत्सुकता और बढ़ गई। सब सोचते यह क्या चक्कर है।
कुछ लोगों का मन नहीं ही माना। किसी तरह से मास्टरजी तक पहुंच बनाई गई। पूछा। मास्टरजी ने कहा- हां, वह आता तो है। राजाजी ने यह कहलवा कर उसे भिजवाया था कि राजकुमार रानीजी क़े बहुत दुलारे हैं। आप ठहरे मास्टर, राजकुमार ठहरे बच्चे। हो सकता है राजकुमार कुछ गलती कर बैठें या कोई सबक ठीक से न सीख सके । आप को गुस्सा आ सकता है। ..तो आप अपना गुस्सा इस गरीब बच्चे पर उतार लें। डांट लें, डंडा मार लें, चपत लगा लें। जब पूरा गुस्सा उतर जाए तो राजकु मार को प्यार से फिर सबक पढ़ा दें..।
राजे-रजवाड़े नहीं रहे। किस्सा पुराना पड़ गया है, लेकिन जो मूल सोच है , वह आज भी वही है। कई बार खुले तौर पर देखने को भी मिलती है। राजनीति मे ही देख लीजिए। कांग्रेस में कौआ भी क़हीं गलती से कमाल दिखा दे तो क्रैडिट युवराज राहुल को ही जाती है। दलित के घर वे खाना खा लें तो जय-जयकार। पीडि़त की पीड़ा सुन भर लें तो वाह-वाह। मीडिया के सवाल का सही-सटीक जवाब दे दें तो विजन, इनोवेटिव सोच सब नजर आ जाए। लेकिन जब पूरी ताकत झोंकने के बाद भी उत्तरप्रदेश में राहुल का करिश्मा नहीं चल पाता तो पार्टी मौन धारण कर लेती है। हर कोई वह माथा तलाशने में जुट जाता है जिस पर हार का ठीकरा फोड़ा जा सके । कभी-कभी सलमान खुर्शीद जैसे नेता भूल से सच बोल जाते हैं, मगर हल्ला इतना मचता है कि उन्हें भी जबान पीछे खींच लेना पड़ता है। याद कीजिए, खुर्शीद ने सिर्फ इतना ही तो कहा था कि छोटी-छोटी उपलब्धियों से बात नहीं बनेगी , राहुल को बड़े फलक पर काम करना होगा। राजकुमार के बारे में यह राय भी कबूल नहीं है पार्टी को।
समाज में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। समर्थ को सब माफ, बाकी को सब पाप । अभी पिछले दिनों की बात है । कोर्ट ने कहा- शहर में गुंडागर्दी बहुत बढ़ गई है, पुलिस कुछ कर नहीं रही। पुलिस को गुस्सा आया। गुंडे तो पकड़ में आए नहीं।..तो वह ऑफिस जाने-आने वाले उन दोपहिया वाहन चालकों के चालान बनाने में जुट गई जिनके वाहन में मड गार्ड नहीं हैं या जिनके साइलेंसर से अधिक धुंआ निकल रहा है। पिछली दफा जब कोर्ट नाराज हुआ था खराब रोड और बिगड़े ट्राफिक पर, तो प्रशासन ने हेलमेट अनिवार्य करने का बीड़ा उठा लिया था। है ना गजब ?
एक और दृश्य देखिए- शहर में एक शापिंग मॉल के सामने कुछ अफसरों की गाडिय़ां नियमों को धत्ता बताते हुए सडक़ पर खड़ी थी। गाडिय़ां तो अमूमन रोज ही खड़ी रहती हैं, पर उस दिन हल्ला इसलिए मच गया कि यह सब अखबार की सुर्खियों में आ गया था। सवाल उठने लगे । नियमों का पालन कराने वाले ही नियमों को कैसे तोड़ रहे हैं? ऊपर वालों ने नीचे वालों को डांटा, नीचे वाले और नीचे वालों पर भडक़े। अन्तत: जिन अफसरों की गाडिय़ां वहां खड़ी पाई गई थी उन्होंने अपने-अपने ड्राइवर को नोटिस थमा दिए- बताओ गाड़ी गलत पार्किंग में क्यों खड़ी की थी? गोया कि साहब को तो क़ुछ पता ही नहीं। अब आप ही बताइए, क्या इन ड्राईवरों में आपको क्लास के बाहर बैठे उस गरीब बच्चे की सूरत नजर नहीं आती। बेशक वक्त काफी बीत गया है, पर शायद उतना बदला नहीं।